‘शारीरिक श्रम’ तो अपनी जगह है ही लेकिन महिलाओं के लिए ‘मानसिक बोझ’ (मेंटल लोड) और इमोशनल लेबर उससे कहीं ज़्यादा थकाऊ-पकाऊ-चिड़चिड़ाऊ चीज़ है! चलो एक आम भारतीय स्त्री के सिर्फ़ 24 घंटे के कामों का हिसाब करते हैं, फिर उसे साल के 365 दिनों और फ़िर उसे सालों-साल से गुणा कर देते हैं:
एकदम सुबह सबसे पहले सो कर उठ जाना! फ़िर फ्रेश होकर रात के जूठे बर्तन साफ़ करना और पूरे घर को झाड़ू-पोछा करना! फ़िर घर के जानवरों के लिए चारा जुटाना-काटना और नांद पे लगाना! फ़िर सुबह सबके लिए नाश्ता तैयार करना! बच्चों की टिफ़िन तैयार करना, उनको स्कूल के लिए नहा-धुला कर तैयार करना! फ़िर नाश्ते वाले जूठे बर्तन धुलना और लंच की तैयारी करना, फिर बनाना! फिर लंच वाले जूठे बर्तन साफ़ करना! फ़िर घर भर के कपड़े, बेडसीट, गिलाफ़ मोज़े-चड्ढी-बनियान धुलना (वो भी अच्छी तरह नहीं तो चार बातें अलग से)! फिर दोपहर के बाद वाले ‘टी-टाइम’ का वक़्त शुरू हो जाता है! इसी बीच कढ़ाई-सिलाई-बुनाई वाले काम भी होते हैं! सर्दी में पूरी दोपहरी बच्चों व बड़ों के लिए स्वेटर बुनना!

ये भी देखना कि सब्ज़ी-आटा-दाल-चावल-नमक-तेल कब ख़त्म हो रहे हैं, और खत्म होने से पहले घर के ‘आर्थिक मालिकों’ को समय से पहले बता देना! फिर डिनर बनाने की तैयारी शुरू! सबसे बाद में डिनर करने के बाद (कई बार तो खाना भी कम पड़ जाए तो संतोष कर जाना) सुबह नाश्ते में क्या बनेगा ये सोचना और उसके लिए ज़रूरी सामग्री अलग करके रख लेना! दूध गर्म करके सहेज लेना, सोने से पहले सास-ससुर की सेवा अथवा दवाई देना, रात में किसी को प्यास लगे तो उसके लिए पानी की व्यवस्था पहले ही सुनिश्चित कर लेना! फ़िर हस्बैंड के साथ लगभग ‘अनिवार्य’ सेक्स! मूड न हो, थकी हो तब भी! फ़िर सोना और सुबह सबसे जल्दी उठ जाना….अगले 24 घंटे की दिनचर्या के लिए!
(नोट: नाश्ता-लंच-डिनर रोज़ाना की विविधता लिए हुए अनिवार्य रूप से स्वादिष्ट होने चाहिए! सास-ससुर के लिए तेल-मसाला कम, शुगर-दिल के मरीजों के लिए चीनी कम, लेकिन बच्चों की जिह्वा का ख़याल रखते हुए खाने में ये सारी वर्जित चीज़ें भी शामिल करना ज़रूरी है)
इन सबके अलावा ये सुनिश्चित करना कि अचानक प्रकट होने वाले मेहमानों के लिए बिस्किट-नमकीन ख़त्म न होने पाए! चीनी-चायपत्ती तो कत्तईं नहीं! बच्चों की फ़ीस कब जमा करनी है, खाना बनाने का गैस कब ख़त्म हो रहा है! फलाने रिश्तेदार के यहाँ न्योता कब जाना है, क्या-क्या लेन-देन होना है..इत्यादि का मानसिक हिसाब रखना ज़रूरी है!……..और ये सब घर के अंदर रहते हुए, सिर से साड़ी का पल्लू बिना गिराये, बिना थके, बिना बीमारी बताये हँस-हँस के करना होता है! ध्यान रहे बार-बार कमर दर्द- सिरदर्द का बहाना आपको कामचोर की श्रेणी में रख देगा जिसका ठीकरा न सिर्फ़ स्त्री के माथे पर फूटता है बल्कि उसके माँ-बाप के संस्कारों तक पर ताने के रूप में फूटता है! ऐसे में बाहर टहलने-घूमने के लिए वक़्त बचाना, दोस्त बनाना-गप्पें मारना कितना लगभग नामुमकिन सा हो जाता है! इन सबके बावजूद मर्दों को लगता है कि महिलायें घर के अन्दर ख़ाली ही तो बैठी रहती हैं और वो तो रोज़ पहाड़ तोड़कर लौटते हैं बाहर से!
रोज़ाना के ये मानसिक बोझ लगभग पूरी तरह महिलाओं के हिस्से आता है! ऐसे में घर के बच्चे जब अम्मी या दीदी का हाथ बँटाते हैं तो कहा जाता है कि आजकल की महिलायें काम से बहुत जी चुराती हैं! मतलब ख़ुद कामचोर रहे हैं सदियों से लेकिन इन्हें तुलना कल की और आज की महिलाओं में करनी है!
इसीलिए मुझे वो लोग नहीं पसंद जिन्हें खाना बनाना या ऊपर लिखित दैनिक कार्य शेयर नहीं करते! आप महिलाओं का सिर्फ़ हाथ न बाँटिये बल्कि ये सारे काम बराबर शेयर करना आपकी ज़िम्मेदारी है! ताकि महिलाओं को भी बाहर निकलने घूमने का वक़्त मिले और आप बेशर्मी के साथ ये न कह सकें कि दिन भर घर में ही तो रहती हैं और हम बाहर से कमा कर घर का ख़र्च लाते हैं! उनको भी निकल कर कमाने का मौका दो, थोड़ा रोल एक्सचेंज करके भी ज़िन्दगी का मज़ा लो भाई! ज़रा महिलायें भी देखें कि कौन सा पहाड़ तोड़ते हो तुम बाहर!
फ़ादर्स डे पर फादर बन चुके और निकट भविष्य में दुनिया के ‘बेस्ट डैडू’ बनने वाले दोस्तों के लिए! 😁
लेखक – तारा शंकर (PhD) JNU