story of munjal family creator of hero motocop

हम सब हीरो को जानते हैं। हीरो के चार हीरे के बारे में कम जानते हैं। अनगिनत लोगों के जीवन में हीरो साइकिल आई होगी। हीरो होंडा 100cc बाइक आई होगी। हीरो होंडा 100cc इस नाम के साथ 100cc ने ईंजन की क्षमता परखने का पैमाना भी लोकप्रिय कर दिया। हवा की तरह बे-आवाज़ चलने वाली यह मोटर साइकिल फटफटिया की पहचान से अलग थी।

उस दौर का विज्ञापन fill it, shut it, forget it याद आता ही होगा। अस्सी और नब्बे का आधा दशक हीरो होंडा का है। वैसे तो इसकी बुलंदी आज भी है लेकिन अस्सी के दशक को इस बाइक ने अलग ही पहचान दी। उपभोक्ताओं को सपना दिया। गौरव दिया। लालच दी। यह वह दौर था जब कार नहीं होने का दुख आम जीवन में नहीं था।

उनके जीवन में होंडा मोटर साइकिल की प्रतिस्पर्धा में आया न कि कार न होने के बदले आया। ईंधन की कम खपत, धुएं और आवाज़ से मुक्त हीरो होंडा लोक संस्कृति का हिस्सा हो गया।

बहुत से भोजपुरी गानों में हीरो होंडा का ज़िक्र मिलेगा। उन गानों का अलग से विश्लेषण किया जा सकता है। इस बाइक ने शादी वाले घरों की शेखी बदल दी। लड़का और लड़के के पिता कई मौक़ों पर अड़ने लगे कि पहले हीरो होंडा की डिलिवरी होगी फिर बारात निकलेगी।इसे लेकर झगड़े और मोल-भाव होने लगे।

हीरो होंडा न मिलने के कारण पत्नी को छोड़ दिया या जला भी दिया। इस बाइक ने युवाओं को रोमांच दिया तो रोमांस करने के लिए नई-नई जगहों पर जाने का साहस भी। इसे पाने के लिए बहुत से लड़के अपराधी बन गए।

यूपी और बिहार के अपराधियों की क्षमता भी हीरो होंडा के कारण बढ़ गई। तीव्र पिक अप और तेज़ रफ़्तार ने अपराध स्थल से ओझल होने का अवसर और हुनर दिया। अस्सी और नब्बे के दशक में बहुत से अपराधी हीरो होंडा से आए और ग़ायब हो गए।

हमारे जीवन में भी एक हीरो होंडा है। आज भी है। बाबूजी की स्मृतियों की निशानी है। वही 100cc हीरो होंडा, लाल रंग वाली। उन्हें लाल रंग बहुत पसंद थी। अब चल तो नहीं पाती लेकिन हम उसे ख़ुद से अलग नहीं कर पाए।मुझे पता है इन पंक्तियों को पढ़ते हुए आप की स्मृतियों में भी हीरो के कई प्रसंग उभर आएंगे। आप रोक नहीं पाएंगे।

शर्त लग जाए।यह सब याद इसलिए आया क्योंकि मैं एक किताब पढ़ने लगा जिसमें हीरो को हीरो बनाने वाले चार भाइयों की कहानी है। इसे सुनील कान्त मुन्जाल ने लिखी है जो चार भाइयों में से एक बृजमोहन मुन्जाल के बेटे हैं।2020 में अंग्रेज़ी में आ चुकी है लेकिन इस साल हिन्दी में मंजुल प्रकाशन से आई है। 199 रुपये की यह किताब शानदार है।

इस किताब को पढ़ते हुए आप एक परिवार के बारे में ही नहीं जानते बल्कि विभाजन से पहले और बाद के दौर के कारोबारी जीवन में भी झांकने का मौक़ा मिलता है। आज के पाकिस्तान के लायलपुर ज़िले में कमालिया नाम का एक कस्बा था। वहीं के रहने वाले थे बहादुर चन्द मुन्जाल जिनकी पांच संतानें हुईं। एक बेटी और चार बेटे।

बृजमोहन लाल मुन्जाल, दयानंद मुन्जाल, ओम प्रकाश मुन्जाल और सत्यानंद मुन्जाल। आर्य समाज की संस्कृति में रचा बसा यह परिवार ख़ुशहाल था मगर पैसे बहुत नहीं थे। इन भाइयों ने अपने जीवन में क्या क्या नहीं देखा, लेकिन यह किताब इनके जीवन के साथ-साथ विभाजन से पहले और बाद के आर्थिक बदलावों को भी दर्ज करती है।

1929 की महामंदी किस तरह से उनके आस-पास और तब के ब्रिटिश भारत को प्रभावित करती है। जिसका असर मुन्जाल परिवार पर भी पड़ता है। नौकरी की तलाश में बड़े बेटे बृजमोहन लाल मुन्जाल को कुछ नहीं मिलता है तो 1938 में पढ़ाई छोड़ कर खेत में गन्ने के बंडल गिनने का काम मिलता है और वो काम ईमानदारी से करते हैं। यही बृजमोहन लाल आगे चल कर हीरो साइकिल और मोटर साइकिल बनाते हैं। लेकिन अकेले नहीं, अपने तीन और भाइयों के साथ।

इन भाइयों ने जीवन में क्या क्या नहीं देखा। बृजमोहन लाल अपने तीन भाइयों के पीछे-पीछे क्वेटा जाते हैं जो वहां पर आर्डिनेंस फैक्ट्री में काम कर रहे थे। उनके बेटे सुनील कान्त मुन्जाल लिखते हैं कि इस शहर में काफी हलचल थी। पूरे भारत से लोग रोज़गार की तलाश में यहां आते थे। बहुमंज़िला इमारतें थीं। मिनी लंदन कहा जाता था।

1935 का भूकंप आता है और एक भाई दयानंद इमारत में दब जाते हैं। 36 घंटे बाद ज़िंदा निकाले गए और जीवन भर दर्द में रहे। 1958 में जब हीरो फैक्ट्री बनी तो स्टील की सीट उनके ऊपर गिर गई और जांघ कई जगह से टूट गई। दंगों के दौरान एक गोली बृजमोहन लाल के ललाट को छूती निकल गई।

घायल हो गए। सत्यानंद को बाकी भाई सेना में भरती होने के लिए कहते हैं मगर फ्लैट फुट होने के कारण उनका चयन नहीं होता है। यह एक संयोग था। उस साल क्वेटा से जिन चार लोगों का चयन हुआ था, सभी द्वितीय विश्व युद्ध में मारे गए। क्वेटा से असफल होकर सत्यानंद लाहौर जाते हैं।

अपने भाई दयानंद के दोस्त की साइकिल की दुकान में काम करने। वहां पंचर बनाना सीखते हैं। इनके जीवन में साइकिल आती जाती रहती है। इस किताब को पढ़ते हुए लगेगा कि कभी नियति इन चारों भाइयों की कहानी लिख रही है तो कभी चारों भाई अपनी नियति की कहानी ख़ुद लिख रहे हैं।

आर्डिनेंस फैक्ट्री में रहते हुए तीन भाइयों ने मैकेनिक का काम सीख लिया तो बृजमोहन लाल मैट्रिक पास होने के कारण क्लर्क बन गए। यहीं पर चारों भाई साइकिल की देखभाल और मरम्मत सीखते हैं।

बृजमोहन लाल अपने काम से सबका दिल जीत लेते हैं लेकिन दोस्त के पिता की सेवा करने के लिए अपनी नौकरी दांव पर लगा देते हैं। नौकरी छोड़ देते हैं। हर कीमत पर व्यक्तिगत संबंध निभाने वाले बृजमोहन का पूरा जीवन इस किताब में नहीं है। उनके जीवन में किताब लिखने के प्रस्ताव आए मगर उन्होंने नहीं लिखा।

शायद उनके जीवन के संघर्ष की दास्तान इतनी लंबी और जटिल रही होगी कि उनमें लौट कर दर्ज करते हुए नए सिरे से जीना उन्हें नहीं जंचा होगा। उनके जीवन के बाद बेटे सुनील ने लिखने का बीड़ा उठाया तो बहुत कम प्रसंग बचे मिले। कुछ यहां से मिले तो कुछ वहां से।

लेकिन इस प्रसंगों में भी आप विभाजन को लेकर आम जीवन में जो घट रहा है और उसमें बर्बाद हुए एक परिवार विभाजन के बाद अपने परिवार को जीने लायक खुराक देने के लिए संघर्ष करता हुआ स्वतंत्र भारत के सपनों को भी अपना लेता है। तभी तो बृजमोहन अपने घर से उजड़ कर 16 अगस्त को नेहरू का भाषण सुनने जाते हैं। जश्न मनाते हैं।

1944 का साल था। अमृतसर में दयानंद साइकिल के पार्ट्स की दुकान खोलते हैं। 1945 में अमृतसर में बाढ़ आती है ।उसी के आस-पास इनकी दुकान में चोरी होती है। चारो भाई चोर को आगरा से खोज लाते हैं। चोर के पीछे पीछे आगरा पहुंचे और सामान बरामद किया तो वहीं पर साइकिल की दुकान खोलने का फैसला किया।

लेकिन कुछ समय बाद बालमुकुंद जी लुधियाना में साइकिल पार्ट्स की दुकान खोलते हैं जिसमें पार्टनर बनकर पहले दयानंद पहुंचते हैं और फिर उनके पीछे पीछे भाई। भाइयों का एक दूसरे के पीछे पीछे आ जाना और इनके जीवन में किसी न किसी बहाने साइकिल का आ जाना बता रहा था कि अभी इनके जीवन में हीरो की कहानी बाकी है।

कमालिया में अपना घर बनाने में लग जाते हैं। लेकिन तब तक हवा गरम होने लगी थी। दंगे होने लगे थे और विभाजन की बात सुनाई और दिखाई देने लगी थी। परिवार की बैठक बुलाई जाती है कि आगे क्या करना है। सबने तय किया कि अमृतसर चलते हैं। दयानंद और सत्यानंद वहां जाकर कारोबार शुरू करते हैं।

यही वो दौर था जब डीजल ईंजन, पंप, सिलाई मशीन, कल पुर्ज़े और साइकिलों के उत्पादन और मांग में वृद्धि होती है। मुन्जाल बंधु इस अवसर के करीब पहले से आ चुके थे। कहानी कई मोड़ लेती हुई लुधियाना पहुंचती है। 1956 में हीरो साइकिल की नींव पड़ती है।

सुनील कान्त ने यह किताब सिर्फ अपने पिता के लिए नहीं लिखी है। उनके तीनों चाचा के बग़ैर हीरो का सफ़र ही पूरा नहीं होता है। इसी में ओम प्रकाश मुन्जाल हैं। जिनकी पहचान शायर मुन्जाल के रूप में हो चुकी थी।

वे हीरो की डायरी बनाते हैं जिसकी मांग काफी हुआ करती थी। इस डायरी के हर पन्ने पर किसी का शेर तो किसी की कविता होती थी। इसका चुनाव ओम प्रकाश मुन्जाल करते थे। नए कवियों को भी मौक़ा मिलता था। किताब चलते चलते बंगाल के अकाल में पहुंचती है तो गांधी जी के करो या मरो के आंदोलन में। एक से एक मोड़ हैं इस किताब में।

चूंकि यह किताब चार भाइयों के बारे में हैं और अभी मैं पढ़ ही रहा हूं लेकिन अभी तक उन प्रसंगों का ज़िक्र नहीं दिखा जिसके बग़ैर आज़ाद भारत में किसी उद्योग का विस्तार हो ही नहीं सकता। नेताओं से परिचय का ज़िक्र तो है लेकिन उसके बदले लेन-देन का नहीं मिला। क्या पता आगे के पन्नों में हों या इसका ज़िक्र करना संभव न रहा हो।

मैं सारी बातें नहीं लिख रहा। दरअसल इस किताब में इतने छोटे-छोटे किस्से भरे हैं और हर किस्से का व्यापक संदर्भ है कि उसके ज़िक्र करने से ख़ुद को रोक पाना मुश्किल हो रहा है। इसलिए यहीं विराम देना होगा। लेकिन इस किताब के ज़रिए बृजमोहन लाल मुन्जाल और उनके भाइयों से मिलकर बहुत अच्छा लगा।

शानदार जीवन जीया है। ख़ूब झेला है और ख़ूब जीया है। सांप्रदायिकता के भयंकर उफान के बीच फंसे इस परिवार का कितना कुछ उजड़ गया लेकिन इस किताब के प्रसंगों से बिल्कुल नहीं लगता कि उसकी तल्खी लेकर मुन्जाल परिवार सांप्रदायिक हो गया। कम से कम इस किताब में दर्ज नहीं है। उम्मीद है सुनील कान्त मुन्जाल का हीरो ग्रुप सांप्रदायिकता फैलाने वाले चैनलों को विज्ञापन नहीं देता होगा।

जिस तरह से मुन्जाल परिवार को लगा कि विभाजन के बाद भारत में रहना चाहिए उसी तरह लुधियाना के करीम दीन को विभाजन के बहुत बाद में लगा कि पाकिस्तान में रहना चाहिए। करीम दीन जब पाकिस्तान जाने लगे तो ओम प्रकाश मुन्जाल ने उनसे पूछा कि क्या वे उनके ब्रांड का इस्तमाल कर सकते हैं। करीम दीन ने हां कर दी। उस ब्रांड का नाम हीरो था। जो आज का हीरो है।

source ravish kumar

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